ग़ज़ल – विनोद निराश

लम्हा-दर-लम्हा ये सांस रूकती गई ,
ज़िंदगी हाथों से ये फिसलती गई।
इक आहट सी हुई मेरे दिले-वीरां में,
जब तेरी यादों की शाम ढलती गई।
कभी उठती कभी गिरती रही साँसे,
कुछ इस कदर ये रातें गुजरती गई।
इक अधूरी सी ख्वाहिश लेके आरज़ू,
मुसलसल हाथ अपने मलती गई।
उनकी यादों की चहलकदमी तो रही,
पर जख्मो में सरसराहट उठती गई।
बेखबर रहे ज़िंदगी की पहेली से हम,
मेरी होके सदा गैरों सी लगती गई।
उम्र का तकाज़ा न समझ पाए और,
लम्हा-दर-लम्हा साँसें ये ढलती गई।
कुछ अधूरे से काम जो करने थे पूरे,
ये सुन के संदली सी रूह हंसती गई।
ज़िंदगी ख्वाब सजाती रही देर तलक,
और मौत शब भर दस्तक देती गई।
यूँ जद्दोजेहद हुई ज़िंदगी-ओ-मौत में,
मौत आखेटक बन आखेट करती गई।
मयस्सर तो नहीं हुई कभी भी मगर,
ज़िंदगी जीने के लिए तरसती गई।
तेरी यादों की पतवार लेके जमाने में,
निराश बेवजह ज़िंदगी सरकती गई।
– विनोद निराश, देहरादून