दीवारें मेहनत की (कहानी) – विवेक रंजन श्रीवास्तव

Utkarshexpress.com – रोज़ सुबह पाँच बजे रीना की आँखें खुल जाती थीं। टूटी झोपड़ी की दरारों से ठंडी हवा का झोंका आता, तो वह अपने बड़े बेटे को ढाँकने के लिए साड़ी का पल्लू खींच देती। फिर वह बर्तनों की खड़खड़ाहट के साथ दिन भर के संघर्ष की शुरुआत कर देती। चूल्हे पर चाय उबल रही होती, और उसके बच्चे कंबल में सिमटे होते।
तीन घरों में काम करने के बाद भी उसकी मेहनत सिर्फ दो वक़्त की रोटी जुटा पाती थी। एक दिन पड़ोसन सीमा ने उसे सरकारी योजना के बारे में बताया—”गरीबों को मुफ्त में घर मिल रहा है, तू भी आवेदन कर!” रीना के मन में एक आशा की किरण जगी। उसने कागज़ात इकट्ठे किए और तहसील दफ्तर के चक्कर काटने लगी। पर हर बार वही जवाब—”फाइल लंबित है,” साहब बाहर हैं, या “कुछ और दस्तावेज़ चाहिए।” छह महीने बाद भी जब उसकी फाइल धूल खा रही थी, तो उसने सोच लिया—सरकार नहीं, अपने आप खड़ा करूँगी घर!
अगले दिन से उसने एक और घर में काम पकड़ा , अपनी मैडमों को मकान बनवाने की योजना बताकर एडवांस देने हेतु मनाया । धीरे धीरे रुपए लौटाने की शर्त तथा रीना के मेहनती ईमानदार व्यवहार के कारण सब उसे एडवांस देने पर सहमत हो गए। कुछ राशि उसके पति ने भी अपने मालिक से एडवांस ले ली।
दो साल तक रीना ने दिन में काम किया और शाम को वह और उसका पति ईंट-गारे से जूझे। मज़दूरों की जगह खुद हाथ से गारा गूँथ लिया। कभी बच्चे बीमार पड़े, तो रात भर जागकर उनकी देखभाल की और सुबह फिर काम पर चली गई। हर महीने वह अपनी तनख्वाह से कुछ पैसे काटकर उधार चुकाती रही। एक दिन श्रीवास्तव मैडम ने कहा, “रीना, तुम्हारी ईमानदारी देखकर हमें गर्व है। बाकी पैसे माफ़!” पर उसने सिर हिला दिया—”नहीं मैडम, मैं पूरा पैसा लौटाऊँगी।”
आखिरकार वह दिन आया जब पूरा उधार चुक गया । रीना का घर अब उसका खुद का था । अब पहली तारीख को किसी मकान मालिक का किराए के लिए कोई तकाजा नहीं होता था। पहली बार रीना और उसके पति ने अपने बच्चों को नए घर की चौखट पर बैठाकर मिठाई खिलाई। बेटी ने पूछा, “अम्मा, यह घर हमारा है न?” रीना ने उसे गले लगाते हुए कहा, “हाँ बेटा, यह मेहनत की दीवारें हैं… जो कभी नहीं ढहेंगी।”
उस रात झोपड़ी की यादों के साथ वह नई छत के नीचे सोई। सपनों में नहीं, हक़ीक़त में अब उसकी अपनी धूप-छाँव खुद उसकी थी। (विभूति फीचर्स)