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माँ तुम्हीं नजर मुझे आयी थी – राधा शैलेन्द्र

 

न जाने कौन सा जादू है

माँ तुम्हारे होने में

कोई तरीका आता नहीं

तुम्हें भूल जाने का!

खुद को भी भूल जाती हूँ

जब साँसों में तुम्हीं को पाती हूँ!

 

वो रात मुझे कचोटती है आज भी

जब रेत की तरह फिसली थी

तुम्हारी हथेली मेरी हथेली से,

खुद को रोक न पायी थी मैं

अपनी गिरती साँसों की परछायी में

माँ तुम्हीं नजर मुझे आयी थी!

 

तुम्हारे हर स्पर्श को अपने वजूद में महसूस करती हूँ

माँ तुम्हारी धड़कन को अपनी धड़कन में पाती हूँ

इतना प्यार दिया था तुमने

तुम्हारी इस वसीयत को सबों में लुटाती हूँ

माँ हर रोज आँसू पीती हूँ

पर दर्द नहीं दिखलाती हूँ!

 

संवेदना तुम मेरी हो

ये दुनिया कहाँ समझ पायेगी

पर रंग बदलकर रोज नया

तुम पर ही लिख जाती हूँ!

 

तुम्हारी सारी यादें खुद में समेट मैं जिंदा हूँ

थोड़ी सी मगर खुद से भी शर्मिंदा हूँ

तुमने तो माँ बनकर कितने फर्ज निभाये हैं

बचपन के वो सारे सुख मैंने

माँ तुमसे ही तो पाये है!

 

लोरी गाकर माँ तुमने मुझको

अक्सर ही सुलाया था

पर आज मुझे यूँ तन्हा छोड़कर

माँ तुमको तो न जाना था?

मेरे लिये जीने का सबब बन

माँ फिर तुमको तो आना था

कैसे चुकाऊँ मैं कर्ज तेरा

तुम्हें फिर मेरे लिए तो आना था माँ!

– राधा शैलेन्द्र, भागलपुर, बिहार

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