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सोचा था – ज्योत्सना जोशी

सोचा था तन्हा रहने का शऊर आ जाए,

सोचा था तुमसे बिछड़े तो सब्र आ जाए,

तुमको जानने के बाबत शायद,

खुद तक पहुंचने की राह मिल जाए।

कहा तो था तुमसे कि  दुबारा नहीं मिलूंगी

बात यह कितनी मान ली मालूम नहीं,

तड़पन फासलों की भी मज़ा देती है

सज़ा खुद के लिए ही यह मुकर्रर कर ली।

लबों पर महज़ लब्ज़ ज़ाहिर होते हैं

अहसासों की कोई जुबां नहीं होती

तुमने महज़ उतना ही सुना जितना चाहा,

कुछ बातों की कोई तहरीर नहीं होती।

आबरु पलकों ने कुछ ऐसे रखी

अश्क आंखों ने पिए हया के मोती सा

तुम तक आरज़ू कहां पहुंचीं हमारी

हज़ार पहरे थे रोशनी के पहलू में।

वक्त से कोई गिला भी नहीं हमें

ऐसा भी नहीं कि बेमायने खर्च हुए

नज़र हाथों की लकीरों पर ठहरी ही नहीं

ख्वाब धड़कनों में गुंथकर महकने लगे।

– ज्योत्सना जोशी , देहरादून

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