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यदि मैं ख़ोज पाऊं – ज्योत्सना जोशी

यदि मैं ख़ोज पाऊं

उन शब्दों को

जो मौन को वर्णित कर पाए

हूक पहले पहर उठी थी

उस तड़प को बता जाए

पंखुड़ियों के मध्य पसरी

तुषार की अकुलाहट समझे

स्पर्श तेरा मेरी उंगलियों पर

जो है ठहरा

उस छुअन को ध्वनित कर दें ,

गीत मेरे एकांत का जो

मैंने अक्सर है गुनगुनाया

बार बार वो एक ही अंतरा

लबों पर आकर समाया

यदि मैं ख़ोज पाऊं उन शब्दों को

जो उसकी भीतरी पीड़ा बताए,

उस नदी के छोर ठहरूं

विरहिणी सी जो बह चली

छोड़ सारे छूटे किनारों को

वक्त का हाथ थामें

यदि मैं ख़ोज पाऊं उन शब्दों को

उस विकलता को जवाब दे जाए,

चांद सूने आकाश का

चांदनी ओढ़ा कर चला

वो दिया जो पल पल जला

छिटक कर अंधेरा समेटा

समर्पण सदा अलिखित रहेगा

अनुराग मेरा यूं ओछा होने न पाए,

यदि मैं ख़ोज पाऊं उन शब्दों को

जो मेरे अव्यक्त को व्यक्त कर पाए।।

– ज्योत्सना जोशी (ज्योत) , देहरादून

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