कैसे और क्यों व्यंग्यकार बने परसाई – विवेक रंजन श्रीवास्तव

utkarshexpress.com – हरिशंकर परसाई का जन्म आजादी से पहले 1924 में एक ब्राह्मण परिवार में मध्यप्रदेश के ग्रामीण परिवेश में हुआ। उन्होंने बड़े होते हुए गाँव की सामाजिक-आर्थिक विषमताएँ, रूढ़िवादिता, और आदमी” की पीड़ा और विडंबनाओं को करीब से देखा तथा समझा । उनका व्यक्तित्व संवेदनशील था । उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। पढ़ाई के दौरान उनकी रुचि साहित्य, दर्शन, और समाजशास्त्र में विकसित हुई। प्रेमचंद, रवींद्रनाथ टैगोर, और चेखव जैसे लेखकों ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया । सामयिक घटनाओं पर उनकी नजरें सचेत रहीं । जब वे युवा हुए तब देश आजाद अवश्य हो गया था पर सामाजिक स्थिति आशानुकूल बदली नहीं थी। राजनीतिक उथल-पुथल, नौकरशाही का भ्रष्टाचार, और नैतिकता के ढोंग से उनका सामना हुआ। । इस “मोहभंग” ने परसाई को झकझोरा और उन्होंने महसूस किया कि गंभीर लेखन से लोगों पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना व्यंग्य से पड़ सकता है। उन्होंने अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए बोलचाल की भाषा और हास्य व्यंग्य को अपनाया । वे सतत लिखते गए और व्यंग्य की उनकी मौलिक भाषा शैली विकसित होती गई। उनका लेखन सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि “समाज का आईना” था। जैसे, ‘वैष्णव की फिसलन’ में उन्होंने धार्मिक पाखंड पर करारा प्रहार किया । उन्होंने “ठिठुरता हुआ गणतंत्र” में लोकतंत्र की विसंगतियों को रोचक चुटीले अंदाज़ में उकेरा। लेखन के लिए वे पात्रों के चयन अपने परिवेश से ही किया करते थे। पात्रों के माध्यम से वे व्यंग्य का नाटकीय प्रस्तुतीकरण करने में सफल हुए । परसाई ने कभी भी सत्ता या समाज के ठेकेदारों से समझौता नहीं किया। उनके व्यंग्य में “सच को सच कहने का साहस”था। उनकी पत्रिका ‘वसुधा’ के माध्यम से वे सीधे पाठकों से जुड़े और बिना लाग-लपेट के स्पष्ट विचार रखते थे। जनसामान्य की भाषा में रचना तथा मानवीय वृत्तियों पर लेखन के कारण ही उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं । उनका मानना था कि व्यंग्य का उद्देश्य सिर्फ हँसाना नहीं, बल्कि “सोचने पर मजबूर करना”है। ‘भोलाराम का जीव’, इंस्पेक्टर मातादीन जैसी रचनाओं ने उन्हें अमर बना दिया। 1982 में ‘तिरिछ’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला । उनके लेखन से हिंदी साहित्य में व्यंग्य को मुख्यधारा में स्थान मिला।
परसाई के अध्ययन से हम व्यंग्य लेखन के सूत्र समझ सकते हैं।
समाज को गहराई से देखें तो छोटी-छोटी विसंगतियाँ व्यंग्य का विषय बन सकती हैं।
सरल भाषा, गहरा प्रभाव छोड़ती है। जटिल विचारों को आम बोलचाल के शब्दों में व्यक्त करें।
लेखन में निर्भीकता और ईमानदारी आवश्यक होती है।सच्चाई को छुपाए बिना उसे व्यंग्य ,हास्य का रूप दें।
मानवीय स्वभाव को समझ कर व्यक्ति के दोगलेपन और स्वार्थ पर रचनात्मक प्रहार करें।
परसाई ने व्यंग्य को ही अपना हथियार बनाया क्योंकि यह सटीक वार करता है। हास्य के माध्यम से कटु सत्य भी सहज रूप से स्वीकार्य बन जाता है। और जनमानस तक पहुँचना आसान होता है।
परसाई का लेखन सिर्फ साहित्य नहीं, बल्कि समाज का सांस्कृतिक दस्तावेज़ बन गया है। परसाई का मानना था कि व्यंग्यकार का कर्तव्य है कि अपने लेखन से अंधेरे को उजाले में बदल दें। (विभूति फीचर्स)