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गीतिका — मधु शुक्ला

दे रहे दुख आदमी को आजकल अधिकार,
सह रहा घाटा तभी कर्तव्य का व्यापार।
हम हुआ अभिशप्त मैं की बढ़ गई है शान,
सह रहीं हैं छत तभी तकरार की बौछार।
मित्रता कर्तव्य देती थी हमें अनुराग ,
स्वार्थ ने छीना मनुज से यह मधुर आधार।
साथ मानव का तजी क्यों भावना कर्तव्य,
क्योंकि प्रचलित हो गया छल पूर्ण अब व्यवहार।
घात यदि कर्तव्य से त्यागें सभी बलवान,
वृद्ध, नारी, दीन जन होंगे न तब लाचार।
— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश